चलो दिल्ली! 3 मार्च 2019 (रविवार), सुबह 10 बजे, रोज़गार अधिकार रैली!
रामलीला मैदान से संसद मार्ग!
‘भगतसिंह राष्ट्रीय रोज़गार गारण्टी कानून’ (बसनेगा) पारित करो!
रोजगार गारण्टी संघर्ष के लिए एकजूट हो! रोजगार का अधिकार, मूलभूत अधिकार होना ही चाहिये!
भाइयो, बहनो और साथियो! रोज़गार के अधिकार को जीने का अधिकार कहा जाये तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। लेकिन देश में लम्बे समय से बेरोज़गारी का संकट बढ़ता ही चला जा रहा है। तमाम सरकारें आयीं और चली गयीं किन्तु आबादी के अनुपात में रोज़गार बढ़ने तो दूर उल्टा घटते चले गये। 2 करोड़ रोजगार हर साल पैदा करने की बात करने वाली मोदी सरकार के रोजगार के दावों की पोल भी अब खुल गयी है। पिछले 45 साल में जितनी बेरोजगारी दर कभी नहीं थी, उतनी आज है और सरकार के खुद के आंकड़ों से ये सामने आया है। इस रिपोर्ट को दबाने का पूरा प्रयास मोदी सरकार कर रही है। आज सरकारी नौकरियां तो ऊँट के मुँह में जीरे की तरह हो गयी हैं। एक-एक पोस्ट के लिए हजारों नौजवान जुटते हैं। भर्तियों को लटकाकर रखा जाता है, सरकारें भर्तियों की परीक्षाएँ उत्तीर्ण करने के बाद भी उम्मीदवारों को नियुक्तियाँ नहीं देतीं! परीक्षाएँ और इण्टरव्यू देने में युवाओं के समय, स्वास्थ्य दोनों का नुकसान होता है तथा आर्थिक रूप से परिवार की कमर ही टूट जाती है। नये रोज़गार सृजित करने का वायदा निभाने की बात तो दूर की है, सरकारें पहले से मौजूद लाखों पदों पर रिक्तियों को ही नहीं भर रहीं हैं। मोदी के नोटबन्दी, जीएसटी जैसे निर्णयों नें लाखों रोजगार नष्ट कर दिये। कॉर्पोरेट घरानों के सामने सरकारें दण्डवत हैं तथा सत्ता के ताबेदारों ने बड़ी ही बेहयाई के साथ बेरोज़गारी के घाव को कुरेद-कुरेद कर नासूर बना दिया है। ऊपर से नये रोजगार पैदा करने में असमर्थ प्रधानमंत्री मोदी पकौड़े तलकर मात्र 200 रूपये कमाने को भी रोजगार घोषित कर बेरोजगारों के जख्मों पर नमक छिड़क रहे हैं। 2019 का चुनाव सिर पर है और ऐसे में रोजगार के अधिकार को मूलभूत अधिकार के रूप में स्थापित करने के लिए और चुनाव का प्रधान मुद्दा बनवाने के लिए हमें कमर कसने की जरूरत है।
तुम नहीं ये पूँजीवादी व्यवस्था ही नालायक है!
बेरोजगारी का संकट पूँजीवादी व्यवस्था की पैदावार है। मुट्ठीभर लोगों के मुनाफे के लिए चलने वाली पूँजीवादी व्यवस्था में सबके लिए नौकरियां पैदा ही नहीं हो सकती। उल्टा बेरोजगारों की संख्या ज्यादा होने के कारण मजदूरों को कम पगार पर काम करवाकर मालिक अपना नफा बढाते हैं। कल्याणकारी नीतियों से भी अब सरकार ने मूँह मोड़ लिया है जिससे थोड़ी बहुत नौकरियां पैदा होती थी। आज हालत ये है कि पहले से मौजूद सीटें ही नहीं भरी जा रही। ‘लायक’ उम्मीदवार नही मिलते, नौकरी योग्य शिक्षा नहीं है, परीक्षा में नम्बर कम है जैसे भ्रम पैदा कर बेरोजगारों में ही कोई दोष है, ऐसा इस व्यवस्था में सिखाया जाता है और बेरोजगारी का ठीकरा उनके ही माथे फोड़ दिया जाता है। लेकिन असल में बेरोजगार लोग नहीं बल्कि रोजगार निर्माण ना करने वाली ये पूँजीवादी व्यवस्था ही नालायक है।
बेरोज़गारी की भयंकरता की कहानी, कुछ आँकड़ों की ज़ुबानी!
हाल ही में हुए राष्ट्रीय नमुना सर्वेक्षण के अनुसार 15-29 साल के नौजवानों में बेरोजगारी के आंकड़े
शहरी पुरुष 18.7%
शहरी महिला 27.2%
केन्द्र व राज्य सरकारों के अर्न्तगत 60 लाख से भी ज्यादा पद खाली पड़े हैं। एक ओर पाखण्डी गोबर-गणेशों को भारत “विश्वगुरू” बनता दिख रहा है दूसरी ओर यहाँ शिक्षण संस्थानों और अस्पतालों में आधे से अधिक पद तो खाली ही पड़े हैं! 2017-18 में बेरोजगारी की दर 45 सालों के उच्चतम स्तर (6.1 प्रतिशत) पर पहुँच गयी है। मोदी के शासन काल में संगठित-असंगठित क्षेत्र में 2 करोड़ नौकरियां खत्म हो गयी हैं। पिछले वर्ष रेलवे में 90 हजार पदों के लिए 2.5 करोड़ से भी ज्यादा आवेदन आये थे। युपीएससी परीक्षा देने वालों की संख्या 10 सालों में 3 लाख से 10 लाख पर चली गई है। 2015 में यूपी में चपरासी की 368 पोस्ट के लिए पीएचडी, इंजीनियर समेत कुल 23 लाख उम्मीदवारों ने आवेदन किया था। हाल ही में तमिलनाडु में 14 सफाई कर्मचारियों की पोस्ट के लिए 4600 से ज्यादा आवेदन आये जिसमें बहुत सारे उच्च शिक्षित नौजवान थे। ये बेरोजगारी की तस्वीर दिखाने के लिए काफी है। नोटबन्दी और जीएसटी ने तो लाखों लोगों के मुँह से निवाला छीना ही था।
महाराष्ट्र सरकार ने भी सत्ता में आने के बाद लगभग 5 लाख सरकारी पदों को खत्म करने की योजना बना ली थी। पिछले साल राज्य लोकसेवा आयोग ने सिर्फ 69 पद की ही वैकेंसी निकाली थी। शिक्षक पात्रता परीक्षा पास करने वाले बेरोजगारों की संख्या लाखों में है। चतुर्थ श्रेणी के पद भरने सरकार ने पूरी तरह बन्द कर दिये हैं। लाखों युवाओं को रोज़गार के अवसर मुहैय्या कराने का वायदा करने वाली भाजपा सरकार अब कभी तो जातिवाद और आरक्षण का धुआँ उड़ा देती है; कभी गाय की पूँछ पकड़ लेती है; तो कभी नकली देशभक्ति का ड्रामा खड़ा करती है।
देश की जनता के साथ भारतीय राज्य का छल
भारतीय राज्य और सरकारें देश के संविधान को लेकर खूब लम्बी-चौड़ी बातें करते हैं। संविधान का अनुच्छेद 14 कहता है कि ‘सभी को समान नागरिक अधिकार’ मिलने चाहिए और अनुच्छेद 21 के अनुसार ‘मानवीय गरिमा के साथ जीने का अधिकार’ सभी को है। किन्तु ये अधिकार देश की बहुत बड़ी आबादी के असल जीवन से कोसों दूर हैं। क्योंकि न तो देश स्तर पर एक समान व मुफ्त शिक्षा-व्यवस्था लागू है तथा न ही देश में करोड़ों लोगों के लिए पक्के रोज़गार की कोई गारण्टी है। हर काम करने योग्य स्त्री-पुरूष को रोज़गार का अधिकार मिलना ही सही मायने में उसका ‘जीने का अधिकार’ है। मनरेगा में सरकार ने पहली बार माना था कि रोज़गार की गारण्टी देना उसकी ज़िम्मेदारी है किन्तु यह योजना भी भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ गयी। न केवल ग्रामीण और न केवल 100 दिन बल्कि हरेक के लिए उचित जीवनयापन योग्य पक्के रोज़गार के प्रबन्ध की ज़िम्मेदारी सरकारों की बनती है, यह हमारा जायज़ हक़ है। यदि सरकारें जनता को शिक्षा-रोज़गार-चिकित्सा जैसी बुनियादी सुविधाएँ तक नहीं दे पाती तो फ़िर ये हैं ही किसलिए? पूँजीपतियों को तो करोड़ों-अरबों रुपये और सुविधाएँ खैरात में मिल जाते हैं, बैंकों का अरबों-खरबों रुपये धन्नासेठों के द्वारा बिना डकार तक लिए निगल लिया जाता है। दूसरी तरफ़ आम ग़रीब लोग व्यवस्था का शिकार बनाकर तबाही-बर्बादी में धकेल दिये जाते हैं!
हर हाथ को काम दो! वरना गद्दी छोड़ दो!!
सभी को रोज़गार देने के लिए तीन चीज़ें चाहिए (1) काम करने योग्य हाथ (2) विकास की सम्भावनाएँ (3) प्राकृतिक संसाधन। क्या हमारे यहाँ इन तीनों चीज़ों की कमी है? अब सवाल सरकारों की नीयत पर उठता है। आज शिक्षा, स्वास्थ्य, आवास व अन्य सार्वजनिक सुविधाओं के क्षेत्र में जनता की जरूरते प्रचण्ड है और ये जरूरत पूरी करने में ही करोड़ों रोजगार पैदा किये जा सकते हैं। साथ ही काम के घण्टे आठ की बजाय छह किये जायें तो ना सिर्फ अमीरों के मुनाफे पर रोक लगेगी बल्कि बहुत सारे रोजगार भी नये पैदा होंगे। पर पूँजीपरस्त और जनविरोधी नीतियों को लागू करने में कांग्रेस-भाजपा से लेकर तमाम रंगों-झण्डों वाले चुनावी दल एकमत हैं! धर्म, जातिवाद और क्षेत्रवाद की राजनीति करने वाली चुनावी पार्टियाँ केवल अपनी गोटियाँ लाल करने के लिए हमें आपस में बाँटती हैं।
साथियो! सवाल हम पर भी उठता है कि क्या हम इस अँधेरे दौर को अपनी नियति मानकर बैठ जायें? सरकारी अन्याय और अन्धेरगर्दी पर हम ही नहीं बोलेंगे तो भला कौन बोलेगा? धर्म-जाति-आरक्षण के नाम पर हम कब तक आपस में ही एक-दूसरे का सिर फोड़ते रहेंगे? हम केवल और केवल अपनी एकजुटता के बल पर शिक्षा-स्वास्थ्य-रोज़गार से जुड़े अपने हक़-अधिकार हासिल कर सकते हैं। छात्रों-युवाओं को इस बात को गहराई से समझना होगा। जाति-धर्म जैसे गैरज़रूरी मुद्दों पर झगड़ों-दंगों से हमारा कोई फ़ायदा नहीं होगा। इसे हम जितना जल्दी समझ जायें उतना बेहतर है वर्ना आने वाली पीढ़ियाँ हमें कभी माफ़ नहीं करेंगी!
‘बसनेगा’ अभियान का दूसरा पड़ाव – चलो दिल्ली
अपनी ज़िम्मेदारी को समझते हुए हमने ‘भगतसिंह राष्ट्रीय रोज़गार गारण्टी कानून’ पारित कराने हेतु अभियान शुरू किया और 25 मार्च 2018 के दिन नौजवानों, मजदूरों-मेहनतकशों को लेकर दिल्ली में विशाल मोर्चे के साथ संघर्ष का आगाज किया। इस दीर्घकालिक लड़ाई के दूसरे चरण में हम और ज्यादा तैयारी के साथ शासन को घेरने के लिए तैयार हैं। आप भी इस संघर्ष में अपना योगदान दें और सरकार तक अपनी आवाज़ पहुँचाने के लिए 3 मार्च 2019, रविवार, सुबह 10 बजे दिल्ली (रामलीला मैदान) पहुँचें!
नौजवान भारत सभा
दिशा छात्र संगठन
बिगुल मजदूर दस्ता
मुंबई संपर्क: शहीद भगतसिंह पुस्तकालय, रूम 204, हिरानंदानी बिल्डींग-7बी, लल्लूभाई कंपाऊंड, मानखुर्द (प), मुंबई.फोन नं. – 9619039793, 9145332849 | अहमदनगर संपर्क: शहीद भगतसिंह पुस्तकालय, सिद्धार्थनगर, गुगळे क्लिनिक के पीछे, अहमदनगर.फोन नं. – 9156323976, 7385242011 |
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