देश में लम्बे समय से बेरोज़गारी का संकट बढ़ता ही चला जा रहा है। तमाम सरकारें आयीं और चली गयीं किन्तु आबादी के अनुपात में रोज़गार बढ़ने तो दूर उल्टा घटते चले गये। सरकारी नौकरियाँ नाम मात्र के लिए निकल रहीं हैं, सार्वजनिक क्षेत्रों की बर्बादी जारी है। केन्द्र और राज्यों के स्तर पर लाखों-लाख पद खाली पड़े हैं। भर्तियों को लटकाकर रखा जाता है, सरकारें भर्तियों की परीक्षाएँ करने के बाद भी उत्तीर्ण उम्मीदवारों को नियुक्तियाँ नहीं देतीं! परीक्षाएँ और इण्टरव्यू देने में युवाओं के समय, स्वास्थ्य दोनों का नुकसान होता है तथा आर्थिक रूप से परिवार की कमर ही टूट जाती है। नये रोज़गार सृजित करने का वायदा निभाने की बात तो दूर की है, सरकारें पहले से मौजूद लाखों पदों पर रिक्तियों को ही नहीं भर रहीं हैं। सरकारी खजाने से नेताओं, मन्त्रियों, नौकरशाहों की सुरक्षा और ऐयाशी पर खर्च होने वाले अरबों रुपये अप्रत्यक्ष करों के रूप में हमारी जेबों से ही वसूले जाते हैं, तो क्या बदले में हमें शिक्षा-रोज़गार की बुनियादी सुविधाएँ भी नहीं मिलनी चाहिए? उल्टे आज महँगाई लोगों की कमर तोड़ रही है, व्यापक जनता के लिए रोज़गार ‘आकाश कुसुम’ हो गये हैं, कॉर्पोरेट घरानों के सामने सरकारें दण्डवत हैं तथा सत्ता के ताबेदारों ने बड़ी ही बेहयाई के साथ बेरोज़गारी के घाव को कुरेद-कुरेद कर नासूर बना दिया है। ऊपर से नये रोजगार पैदा करने में असमर्थ प्रधानमंत्री मोदी पकौड़े तलकर मात्र 200 रूपये कमाने को भी रोजगार घोषित कर बेरोजगारों के जख्मों पर नमक छिड़क रहे हैं।